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आर्यावर्त वाणी | विशेष आलेख | 30 नवम्बर 2025,

आर्यावर्त वाणी; आजकल शादी-ब्याह का मौसम अपने पूरे शबाब पर है। हर गली-मोहल्ला रोशनी से जगमगा रहा है, ढोल-नगाड़ों की आवाज़ दूर तक गूंज रही है और लोग खुशियों में सराबोर हैं। लेकिन इन चकाचौंध भरी रातों के पीछे एक दर्दनाक सच भी है, एक ऐसा सच जो अक्सर हमारी नज़रों के सामने होते हुए भी हमसे छूट जाता है।

रात के 3-4 बजे तक काम में झोंके जाते हैं मासूम

जहां मेहमान स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लेकर अपने परिवार के साथ खुशियां मना रहे होते हैं, वहीं उसी स्थल के एक कोने में एक तबका ऐसा होता है, जो इस खुशी से कोसों दूर रहता है। महज़ 10 से 14 साल के बच्चे, जिन्हें इस उम्र में स्कूल की किताबें और खेल के मैदान मिलने चाहिए, वे सर्द रातों में जूठे बर्तन धोने को मजबूर होते हैं।

हाड़ कंपा देने वाली ठंड में, जहां लोग जेब से हाथ निकालने में भी हिचकते हैं, वहीं ये मासूम बच्चे सिर्फ एक पतली कमीज़ पहने ठंडे पानी से बर्तन साफ़ करते नजर आते हैं।

हर शादी में मौजूद, पर किसी की नज़र नहीं जाती

चाहे आप किसी भी शादी या भोज में जाएं, ऐसे बच्चे आपके आसपास दिख ही जाएंगे,  कभी–

▫️ जूठी पत्तलें हटाते हुए
▫️बर्तनों से भरे डस्टबिन उठाते हुए
▫️भोजन के अवशेषों में हाथ डालकर सफाई करते हुए
▫️एक कोने में बैठकर ठंड से कांपते हुए

हम सभी इन्हें देखते हैं, लेकिन या तो नज़रें फेर लेते हैं या यह सोचकर इग्नोर कर देते हैं कि “इनका काम यही है।” पर क्या यह वास्तव में इनका काम है? क्या इन मासूम हाथों में ठंडा पानी और गंदे बर्तन होने चाहिए, या कलम और किताबें?

बाल मजदूरी रोकने का जिम्मा सिर्फ सरकार का नहीं, हम सबका कर्तव्य है

कानून के मुताबिक किसी भी 14 साल से कम उम्र के बच्चे से मजदूरी करवाना अपराध है। पर दुख की बात है कि यह अपराध हमारी आंखों के सामने खुलेआम होता है और हम चुप रहते हैं। जबकि यदि हम चाहें तो एक फोन कॉल भी इन बच्चों की जिंदगी बदल सकती है।

ठेकेदारों का भय, बच्चों की मजबूरी

जब हमारी टीम ने एक बाल मजदूर से बात करने की कोशिश की, तो उसका ठेकेदार तुरंत मौके पर पहुंच गया। उसने बच्चे को बात करने से रोकते हुए उन्हें काम बंद करने को कहा। यह साफ बताता है कि इन बच्चों पर कितना दबाव बनाया जाता है और कैसे उनके शोषण को छिपाया जाता है।

दिन भर की मेहनत का ‘इनाम’—सिर्फ 200–300 रुपये

इतनी कठोर मेहनत और घंटों की ठिठुरन के बावजूद इन बच्चों को इसके बदले में ज्यादा कुछ नहीं दिया जाता।
सिर्फ 200 से 300 रुपये—और इसके लिए भी उन्हें पूरी रात जागकर काम करना पड़ता है।

यह रकम जितनी छोटी है, उतनी ही बड़ी है इन मासूमों की मजबूरी।

क्या इस समाज का हिस्सा होने के नाते हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं?

यदि हम अपनी खुशियों के बीच इन बच्चों की पीड़ा को अनदेखा करते रहे, तो हम भी कहीं न कहीं इस अपराध के सहयोगी बन जाते हैं। हर नागरिक का यह दायित्व है कि—

ऐसी जगहों पर बाल मजदूरी दिखे तो तुरंत 1098 या नजदीकी थाने को सूचना दें।

आयोजकों को बाल श्रम रोकने के लिए जागरूक करें।

बच्चों को स्कूल लौटाने के लिए समाज में जागरूकता बढ़ाएं।

शादी की रोशनियों के पीछे छिपी इन अंधेरी सच्चाइयों को जानना और इनके खिलाफ खड़ा होना बेहद जरूरी है। क्योंकि हर बच्चा खुशियों का हकदार है—न कि ठंड में कांपते हुए जूठे बर्तन धोने का।

अगर हम सब मिलकर आवाज उठाएं, तो इन मासूमों की जिंदगी बदल सकती है। यह सिर्फ सरकार का नहीं, बल्कि हम सभी का नैतिक कर्तव्य है।

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